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Showing posts from 2014

सन्तो आई ’मित्रता’ की आँधी रे!

क्या बात है! आजकल जनता पार्टी "परिवार" एक होने जा रहा है। अरे! न केवल जा रहा है अपितु गले मिलने के लिये आकुल, आतुर है, छटपटा रहा है। अब न कोई समाजवादी पार्टी होगी, न  जनता दल यूनाटेड, न राष्ट्रीय जनता दल, न जनता दल (एस) , न इंडियन नेशनल लोकदल  और न कोई समाजवादी जनता पार्टी, अब बस एक "परिवार?" होगा जनता पार्टी। मुलायम, शरद यादव, नितीश, लालू, देवेगौडा, दुष्यंत चौटाला और कमल मोरारका परस्पर गले मिलने हेतु लपक रहे हैं। यही नहीं वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित किये जा रहे हैं तथा उसकी सम्भावनायें भी तलाशी जा रही हैं। आखिर कौन सी वह बात है जो इन सभी शत्रुता के अभिनेताओं  और शत्रुओं में इतना असीम प्रेमरस घोल रही है? यह सोचने की बात है भाई कि कल तक लालू को पानी पी-पीकर कोसने वाले नितीश और नितीश को पानी पी-पीकर गरियाने वाले लालू आज परस्पर स्वस्तिवाचन कर रहे हैं! कौन सा Unifying Factor  है जिसने दिलों की सारी कड़वाहट में मधुमिश्रित कर दिया? स्वाभाविक शत्रुओं और कलाबाजों की ऐसी अद्भुत मित्रता कभी-कभी देखने को मिलती है। अरे नहीं ये स्वाभाविक कलाबाज ऐसे ही नहीं एक हुये हैं। आजकल

नक्सल आतंकवाद-कायर नक्सली

सुकमा में नक्सली आतंकवादियों द्वारा ग्रामीणों की ओट लेकर सीआरपीएफ के जवानों की हत्या बहुत ही कायरतापूर्ण कदम है। नक्सल आन्दोलन सदा से ही हिंसक और कायरतापूर्ण रहा है। कभी भी नक्सलियों ने एक सृजन नहीं किया, बस उजाड़ा है घरों, खेतों, सड़कों, पगड़न्डियों, विद्यालयों, बहनों की माँगों और माताओं की गोद को। भारत में नक्सल आतंकवाद जिस विचारधारा की कोख से पैदा हुआ, वह विचारधारा वस्तुतः शब्दों में जितनी लुभावनी और सुन्दर है, यथार्थ के धरातल पर उतनी की विकृत, हिंसक, बर्बर, भयानक, रक्तरंजित और अमानवीय है। हत्या, लूट, आतंक आदि उसके सहज अस्त्र हैं। वामपन्थ के इतिहास पर यदि हम दृष्टिपाअत करें तो स्तालिन, माओ, पॉल पोट से लेकर भारत के सामयवादी नम्बूदरीपाद, नायर, ज्योति बसु, बुद्धदेव, मानिक सरकार तक सभी ने किसी न किसी रूप में आतंक, हिंसा और भय का सहारा लिया है। साम्यवादी आतंकवाद का ही नाम नक्सलवाद है। साम्यवाअदियों ने स्वयं शक्ति अर्जित करने और अपने शक्ति को बनाये रखने के लिये vampire की तरह गरीब, शोषित, पीड़ित, भोलीभाली जनता का रक्त चूसा है और जीवन प्राप्त किया है।  नक्सली आतंक के मास्टरमाइंड चारू मजू

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (ABVP) स्थापना दिवस 9 ज्रुलाई पर विशेष....

राष्ट्र के ऊर्जापुञ्ज युवाशक्ति के संवर्द्धन, परिवर्द्धन एवं व्यक्तित्व-विकास को समर्पित विद्यार्थी आन्दोलन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् आज के ही दिन ९ जुलाई १९४९ को अपने ध्येय-पथ पर भारतीयकरण के अभियान के साथ आधिकारिक रूप से अग्रसर हुआ। अपने स्थापना काल १९२५ से ही देश की स्वतन्त्रता एवं राष्ट्र पुनर्निर्माण में तत्पर स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से इस युवा-विकास-पुञ्ज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का स्वतन्त्रता के अरुणिमा के बाद परिमल समीर के प्रवाह सा आगमन हुआ और तभी से युवाशक्ति के उत्थान एवं राष्ट्रोत्थान के विभिन्न दायित्वों का निर्वाह करते हुये यह समीर आजतक निरन्तर अहर्निश अपने गति, लय और तेज के साथ हर प्रकार के अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध बिगुल बजाते हुये तथा निर्माण एवं सृजन का नूतन व सुदृढ़ आधार प्रदान करते हुये प्रवाहित है। इस प्रवाह को समय-समय पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कुशल नेतृत्व द्वारा किये जाने वाले आन्दोलनों, विरोधों एवं अन्याय के विरुद्ध उठने वाले सशक्त स्वरों से प्राणऊर्जा मिलती रही है। चाहे वह पूर्वोत्तर में बांग्लादेश से हो रही घ

हिन्दी-विमर्श: गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी-प्रोत्साहन पर विशेष

गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी को प्रोत्साहित किया जाना बहुत ही स्वागत योग्य कदम है। यदि इसका सही क्रियान्वयन होता है तो न केवल हिन्दी का आत्मविश्वास बढ़ेगा अपितु समस्त भारतीय भाषाओं की चमक वापस आयेगी। अंग्रेजी जैसी अ-बौद्धिक भाषा भारत की समस्त भाषाओं पर ग्रहण बनकर व्याप्त हो गयी है, जिससे न केवल इस देश की संस्कृति प्रभावित हो रही है अपितु साहित्य भी सिकुड़ रहा है। आज स्थिति यह हो गयी है कि बहुत से ऐसे पढ़े-लिखे लोग हैं जिनको अपनी भाषा में अपनी भावनाओं को ठीक से व्यक्त कर पाने में समस्या का अनुभव होता है। अंग्रेजी को अ-बौद्धिक भाषा कहना बहुत ही उपयुक्त है क्योंकि यदि इसके साहित्य की आधारशिला देखी जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस तरह ग्रीक और लैटिन के खण्डहरों पर उगी हुयी काई है यह भाषा? ये अम्ग्रेज लोग बड़े ही गर्व से इलियड, ओडिसी, इनीद को अपने महाकाव्यों में सम्मिलित करते हैं। बहुत ही घमण्ड के साथ प्लेटो, अरस्तू को उद्धृत करते हैं। इसके साथ ही इनका इतिहास ग्रीक को कुचलने, लैटिन को फूँकने में संलग्न रहा है। दूसरी भाषा का अस्तित्त्व समाप्त कर उसके साहित्य सम्पदा पर आधिपत्य कर ये लोग राजा ब

डॉ. हेडगेवार एवं भारतीय राष्ट्रवाद

आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक पूज्य डॉ. हेडगेवार जी की पुण्यतिथि के अवसर पर भारत नीति प्रतिष्ठान द्वारा "डॉ. हेडगेवार एवं भारतीय राष्ट्रवाद" विषय पर व्याख्यान का आयोजन हुआ। जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में डॉ. कृष्णगोपाल जी, सरकार्यवाह (राष्टीय स्वयंसेवक संघ) का उद्बोधन सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रो. कपिल कपूर जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की एवम् डॉ. अवनिजेश अवस्थी जी ने कार्यक्रम का विद्वत्तापूर्ण, सुव्यवस्थित एवं सफल सञ्चालन किया। डॉ. कृष्णगोपाल जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि "भारत का प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार करता है कि पूरा समाज एक है। यहाँ कोई भी प्रार्थना ऐसी नहीम् है जिसमें सबके कल्याण की बात न करके एक व्यक्ति के कल्याण की बात की गयी हो। इस देश का मौलिक सिद्धान्त है "सर्वे भवन्तु सुखिनः", "एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति" । इस सिद्धान्त के सर्वजनसमन्वय में एकात्मबोध है। केवल अपने लिये चिन्तन करने वाला अभारतीय है। पूर्वोत्तर की २२२ जनजातियों में किसी ने कभी भी एक -दूसरे पर अतिक्रमण नहीं किया, न ही दूसरे की पूजा-पद्धति और मान्यताओं क

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, हिन्दी के एक आधार स्तम्भ के रूप में प्रसिद्ध हैं। ये सेठ  अमीचन्द के वंशज थे, जिन्होंने सिराजुद्दौला और क्लाइव के मध्य समझौता  करवाया था। अपने धन के विषय में इनका कहना था कि " जिस धन ने हमारे पुरखों  को नष्ट किया उसको हम नष्ट करेंगे।" ये व्यक्ति नहीं वर्न् संस्था थे।  इअन्के सान्निध्य में हिन्दी के अनेक मूर्धन्य विद्वानों का जन्म हुआ। आज भारतेन्दु जी के जीवन का एक बहुत ही मार्मिक प्रसंग अचानक याद आ गया।  रामनगर (वाराणसी) के राजा इनके समवय थे और इनके परम् मित्र हुआ करते थे।  किसी कारणवश भारतेन्दु जी और राजा रामनगर में मनमुटाव हो गया था। भारतेन्दु  जी अस्वस्थ थे और शैय्या पर लेटे हुये थे। ऐसी अवस्था में उन्होंने सुन्दर  अन्योक्ति का सहारा लेकर गोपिकाओं के विरह-वर्णन द्वारा अपने मित्र को  अपने मन की व्यथा बतायी। राजा रामनगर को उन्होंने पत्र में लिखा- आजु लौं जौ न मिले तौ कहा हम तो तुमरे सब भाँति कहावैं। मेरौ उराहनौ है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावैं। जो हरिचन्द भई सो भई अब प्राण चले चँहैं तासो सुनावैं। प्यारो जु है जग की

भाजपा का सराहनीय कदम...

भाजपा ने श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रधानमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस के सभी देशों को न्यौता दिया जाना निश्चय ही स्वागतयोग्य कदम है। इसकी सराहना होनी चाहिये। सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से हमारे चिर सहचर और सहगामी इन देशों को विशेष स्थान देना आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य था। हजार झंझावातों, कटुता और मनमुटाव के बीच भी हम इस अकाट्य सत्य को नहीं विस्मृत कर सकते की हममें आधारभूत रूप से एक ही संस्कृति का प्रवाह अनुस्यूत है। इन सभी दक्षेस देशों के जन-मन में भावों का जो उद्गार है वह एक धरातल पर जाकर कहीं न कहीं एक होता है ठीक उसी तरह जैसे डेल्टा की सभी धारयें समुद्र में एक हो जाती है। भाजपा के इस समन्वयकारी और सौहार्द्रपूर्ण कदम की कुछ लोग पानी पी-पीकर निन्दा कर रहे हैं । आश्चर्य की पराकाष्ठा तब होती है जब हम देखते हैं कि इस मुहिम में वे लोग बहुत आगे हैं जो कल तक इन सभी देशों के बहुत बड़े पक्षधर हुआ करते थे, जो बांग्लादेशी घुसपैठ पर मौन, पाकिस्तानी हिन्दुओं पर मौन, कश्मीरी पण्डितों पर मौन, तिब्बत पर मुँह सिले बैठे थे। आज यही लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं । लोटे तो बहुत देखे थे बेपेंदी के

राष्ट्र-ध्वन्स के स्वप्नदृष्टा...

कुछ लोग ऐसे भी हैं हमारे देश में जिनको राष्ट्र-ध्वंस में अपार आनन्द आता है। जो इस देश को तार-तार करने के सपने से आननदरसपान कर भावविभोर और आत्ममुग्ध हुआ करते हैं। कोई भी ऐसी बात जो सामज् को जोड़े वाली हो, समाज में विखण्डन एवम् विभ‘झ्जन के विरुद्ध हो उसको देखते ही इनको बदहजमी हो जाती है। आजकल इनकी इस अपच को विश्व-संचार कराने के लिये एक साधन भी मिल गया है यह फेसबुक । ऐसे लोग जिनको प्रायः Intellectual बुद्धिजीवा अथवा बुद्धिमान् कहा जाता है, आज कल विशेष आहत दृष्टिगत होते हैं । वे इतने आहत हैं कि उन्होंने फेसबुक को चिकित्सालय समझ लिया है। मकड़ी जितनी निपुणता से आत्मरक्षा के लिये अपना जाल बनाती है, ये उससे भी अधिक निपुणता से अपनी और अपनी विचारधारा के रक्षार्थ शाब्दिक जाल बनाते हैं, उसे भारी-भरकम शब्दों से सजाते हैं। मकड़ी तो जाल बनाने में अपना कुछ श्रम और व्यय भी करती है, ये भी कुछ ऐसा करते हैं इस बात पर संदेह है। ऐसे कई ’सज्जन’ और ’जनहितैषी’ फेसबुक पर ऐसे गरल उगल रहे हैं, जिसा कि समुद्रमन्थन में भी न निकला होगा । अब इनका गरल पीने के लिये किसी को नीलकण्ठ बनना आवश्यक हो गया है। वैसे भी इस जमात स

जनादेश एवं अपेक्षायें...

मँहगाई से व्यथित, विभिन्न क्षेत्रों में आतंक से लेकर क्षेत्रीय गुण्डाराज, अवैध वसूली, कचहरी और थानों के व्यर्थ चक्कर से पीड़ित, विभिन्न व्यथाओं से व्यथित जनता ने अबकी बार समवेत स्वर से व्यापक जनादेश दिया है। इस जनादेश के साथ ही यह आशा और विश्वास भी जताया है कि विकास होगा, जिसका लाभ जन-जन को मिलेगा। श्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी अपने प्रथम चरण से इसी बात का संकेत दिया है कि उनकी प्राथमिकता देश का विका स और व्यवस्था का पुनर्स्थापन है। जब व्यथा बड़ी होती है, तब आवश्यकता भी बड़ी हो जाती है और अपेक्षायें भी बड़ी होती हं । जितनी बड़ी अपेक्षायें होती हैं, उतनी ही बड़ी बाधायें भी आती हैं उनकी पूर्णता के मार्ग में । यही सदिच्छा है कि विभिन्न अटकलों, अवरोधों एवं बाधाओं को पार करते हुये श्री नरेन्द्र मोदी के कुशल नेतृत्व में भारतीय जनता की अपेक्षायें एवम् इच्छायेम् पूर्ण हो सकें । देश निराशा के वातावरण से आशा के प्रकाशमय जगत् तक की यात्रा कर सके। बहुत दिनों तक कालिमा थी, अन्धकार छाया हुआ था, मार्ग नहीं सूझता था। पिछली यूपीए सरकार में तो ऐसी कालिमा थी जैसे चन्द्रमा की चन्द्रिका को भी राहु ने ग्रस लिया हो

युवा युग विजेता है...

कल संसदीय दल की बैठक में एवं बैठक से पूर्व जो दृश्य जनमानस के समक्ष उपस्थित हुआ वह निश्चय ही अभिभूत कर देने वाला था। लोकतन्त्र के एक नये युग का सूत्रपात हो चुका है, जिसमें एक नवल स्फूर्ति है, नयी ऊर्जा है और नवोत्थान की अभूतपूर्व प्रेरणा है। जिसकी आत्मा ही दैदीप्यमान शक्तिपुञ्ज से वेष्टित है। लोकतन्त्र मन्दिर है ऐसा पुस्तकों के अलंकृत शब्दों में दिखायी पड़ता था या कतिपय जिह्वाओं पर भूषित होता था पर न्तु श्री नरेन्द्र मोदी ने लोकतन्त्र मन्दिर है इस बात को मनसा-वाचा-कर्मणा सिद्ध कर दिया। ड्योढ़ी पर प्रणाम और श्रद्धाज्ञापन हमारी प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा है, उस परम्परा का निर्वहन करते हुये न केवल मोदी जी ने अपनी हार्दिक भक्ति दिखायी है अपितु इस देश के जनमानस को परम्पराओं के प्रति श्रद्धा और विश्वास का भी संदेश दिया है। संशदीय दल की बैठक में श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उच्चरित शब्द-शब्द अत्यन्त विश्वासपूर्ण था। उत्साह, उमंग और उल्लास का जो समावेश उस अद्भुत वाणी में था, उससे जो ऊर्जा निकलती है, वह है आशा की ऊर्जा, विश्वास की ऊर्जा, एक तेजपुञ्ज के स्रुजन और संस्कार की ऊर्जा। यह ऊर्जा न केवल भा

मोदी जी ने ठीक ही तो कहा राहुल को बच्चा

मोदी जी द्वारा राहुल माइनो के लिये ’बच्चा’ सम्बोधन सटीक एवं उपयुक्त है। इससे मोदी जी का शब्दसामर्थ्य पता चलता है। ’बाल’ /’वत्स’ जिसका अपभ्रंश रूप ’बच्चा’ है, उनके लिये भी प्रयुक्त होता है, जो किसी विषय, विधा अथवा शास्त्र में अनभिज्ञ हों अथवा उसके विषय में जानकारी प्राप्त करने की शुरुआत कर रहे हों। जैसे यदि कोई व्यक्ति ’जर्मन’ भाषा सीखना प्रारम्भ करता है तो वह ’जर्मन’ भाषा के लिये ’बच्चा’ ही होगा।  यद्यपि राहुल ’आयुवृद्ध’ हैं परन्तु यह बात भी सत्य है कि वे ’ज्ञान-बाल’ हैं। ’अनुभव-बाल’ भी उनको कहा जा सकता है। राजनीति में मुख्यतः तीन प्रकार के पौधे होते हैं- (१)जंगल में स्वयं के लिये संघर्ष करके उगे देवदार, (२) गमले में किसी के द्वारा रोपे एवं संरक्षित किये गया सजावटी गेंदा (गेंदा इसलिये कि इसमें अपना कुछ एण्टीबैक्टीरियल गुण तो होता है। यद्यपि दूसरों के हाथों रोपे जाते हैं) (३) ग्रीन हाउस में गम्भीर संरक्षण (ICU) में पले-बढ़े पौधे, जिनको वह धूप भी कुम्हला देती है, जिसके लिये ’देवदार’ संघर्ष करते हैं। राहुल गाँधी तीसरी कोटि के पौधे हैं। हम सभी जानते हैं कि ग्रीन हाउस की उपज कितनी क्षणिक

मुलायम के कलुषित हृदय को उजागर करने वाली धन्य है तू जिह्वा...

कहते हैं कि दिल की बात जुबान पर आ ही जाती है। आखिर मुलायम सिंह दिल की बात निकालने को उतावली अपनी मचलती रसना (जीभ) को भला कब तक रोक पाते? अपनी जीभ से तलवार चलाने में माहिर समाजवादी पार्टी के "समाजवादी" नेता जी के मुँह से उनकी असलियत तो निकलनी ही थी, सो निकल गयी। समाजवादी पार्टी विषवमन और समाज में विषवपन के लिये प्रसिद्ध है ही। आखिर विष के बीज बो-बो कर उसकी पार्टी सत्ता में जो आती है। अब भला अपना चरित्र कैसे छोड़ दे? जो लोग आजम खाँ की विषाक्त जिह्वा से आश्चर्यचकित थे, उन्हें अब पता चल गया होगा कि उसकी कैंची जैसी जीभ को बल कहाँ से मिलता है। आज ’जैसा राजा वैसी प्रजा’ कहावत भले न सही हो पर ’जैसा मुखिया वैसे घरवाले’ ये कहावत चरितार्थ हो गयी। मुलायम ने समाज में वैमनस्य फैलाने वाली बेलगाम जुबानों पर कभी लगाम लगाने की कोशिश नहीं की, क्योंकि ये तो उन्हीं के द्वारा इसी विषवमन के लिये रोपे गये पौधे थे। आज उन्हीं मुलायम की स्त्रियों के प्रति घटिया एवं अपराधियों के प्रति उदात्त भावना देखकर मुझे कदापि आश्चर्य नहीं हो रहा है। उत्तरप्रदेश के हर नागरिक को, जो मुलायम का क्रीतदास नहीं है, उसे य

मृगमरीचिका में खोया है वसन्त

वसन्त ऋतु आयी । वसन्तपञ्चमी का उत्सव भी धूमधाम से सम्पन्न हुआ । पीले वस्त्रों ने पीले पुष्पों की रिक्तता के अनुभव को कुछ कम करने का प्रयास किया । साहित्यजगत् से लेकर सामान्य जगत् तक पराग, मकरन्द, किंशुक, सुगन्ध, पुष्प, कोपल, पल्लव, किंजल्क आदि अनेक वासन्ती शब्द सुनायी देने लगे । शब्दों में, कपड़ों में, चित्रों में एक दिन के लिये वसन्त का आभास होंने लगा । इस आभास से मन भी वासन्ती अभा में आभासित हो चला । पर बिना पुष्प देखे, पराग के स्पर्श से आती हुयी वायुपुञ्जों की सुगन्धि का अनुभव किये भला मन कैसे वसन्ती हो सकता है । पत्रा में वसन्त आ जाने से तिथि-परिवर्तन होते ही उत्सव तो प्रारम्भ हो जाता है, पर मानस की वास्तविक उत्सवधर्मिता तो प्रकृति के उत्सव एवं आह्लाद से नियन्त्रित होती है । प्रकृति का आह्लाद ही हृदय एवं मन को उल्लसित कर सकता है । कृत्रिम उल्लास तो चन्द क्षणों का अतिथि होता है, जो उसका आतिथ्य स्वीकार करते ही अपनी आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करता है । प्रकृति के अभाव में कृत्रिमता कबतक वास्तविक आनन्दानुभूति का अभिनय कर सकती है । एक आदर्श अभिनेत्री की भाँति कृत्रिमता अपना लावण्य दिख