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Showing posts from 2008

स्त्रियों के लिये असुरक्षित दिल्ली

आज महिलाएँ घर के बाहर् और भीतर हर जगह असुरक्षित हैं । अभी हाल ही में दिल्ली की एक पत्रकार की हत्या इसका जीता - जागता उदाहरण है। ऐसे में हमारे आश्चर्य की सीमा तब पार हो जाती है जब दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित इस घटना पर प्रतिक्रिया करते हुए कहती हैं कि सौम्या को रात में नही निकलना चाहिये था यह दुःसाहसिक कार्य है । अब जब भारत की राजधानी दिल्ली में स्त्रियाँ इतनी असुरक्षित हैं तब देश के अन्य भागों की बात कौन करे ? मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित का यह बयान निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि यदि मुख्यमन्त्री ही ऐसा बयान देने लगेगी तब तो अपराधियों का मनोबल और ऊँचा होगा और स्त्रियों को छेड़ना , बलात्कार करना और हत्या तक करना उनके लिये चुटकियोँ की बात हो जायेगी। कम से कम हमारे राजनेताओं को ऐसे शुतुरमुर्गी समाधानयुक्त बयानों से बाज आना चाहिए। ऐसे बयानों से समाज में एक गलत संदेश जाता है । सरकार किस लिये है जब वह अपने नागरिकों को सुरक्षा तक

स्त्री-पुरुष अनुपात में असंतुलन

में आजकल कन्या भ्रूण हत्याओं के कारण लगातार लड़कियों की संख्या में कमी हो रही है । यह चिन्ताजनक है । क्योंकि लड़्कियों के विना समाज चल सकता है क्या ? स्त्री और पुरुष किसी समाज के आधारभूत और अनिवार्य घटक हैं पर हमारे यहाँ आजकल इस सर्वमान्य तथ्य को नज़र अन्दाज़ करके लड़कियों को अनावश्यक तत्त्व समझा जाने लगा है इसी का परिणाम है कि आज हमारी सरकार यहाँ काम कर रहे एनजीओ सभी इस विषय में चिन्तित हैं । चिन्ता इस सन्दर्भ को लेकर भी है कि यदि स्त्री - पुरुष अनुपात में बहुत बड़ा अन्तर हुआ तो समाज में स्त्रियाँ सर्वथा असुरक्षित हो जायेंगी तथा पर्दा - प्रथा जैसी कुरीतियाँ फिर से जन्म लेने लगेगीं ।कोई भी कुरीति विषमता में ही जन्म लेती है । स्त्रियों की कम संख्या एक प्रकार की विषमता ही है । समाज में इस प्रवृत्ति के यदि तह में हम जायें तो देखेंगे कि इसका मूल कारण दहेज - प्रथा है । माता - पिता कभी यह नहीं चाहते कि उनकी पुत्री को उसके अनुरूप घर - वर न मिले

दहेज

स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी आज हम वस्तविक रूप से सभ्य नही हो पाये हैं । फिर भी स्वयं को सभ्य कहते हुए हमें कोई शर्म नही आती ।दहेज आज भी एक दानव के समान हामरे बीच व्याप्त है। न केवल वह अस्तित्व में ही है अपितु दिन - प्रतिदिन वह पुष्ट होता जा रहा है । उसकी बेल दिन दूना रात चौगुना बढ़ रही है । सच है पर थोड़ा कड़वा है वैसे सच का स्वभाव होता है कड़वा होना आज का धनी वर्ग सबसे अधिक दहेज लोभी है । उसने दहेज का नाम परिवएतन अवश्य किया है पर माल वही है । कुल मिलाकर बात वही है नई बोतल में पुरानी शराब । ये प्रथा दिन प्रतिदिन और भयावह होती जा रही है । आज दहेज के कारण कितनी निर्मलाओं की अधिक उम्र के लड़के से शादी कर दी जा रही है इसका कोई रेकार्ड सरकार के पास न कभी रहा है न रहेगा भी । आखिर ऎसा रेकार्ड रहेगा कैसे इस पर तो समाज के तथाकथित दिग्गजों दूसरे शब्दों मे बड़े लोगों का पहरा होता है । ऎसे में क्या माज़ाल की सरकारी नासिका क

जब मेरे पुत्र इन आस्तीन के साँपों के लिये फिर ....................

मैं कभी सोने की चिड़िया था कभी नन्दनवन था कभी मैं देवों के लिये मनभावन था प्रसारित होता था मुझसे ...... एकता प्रेम , विश्वबन्धुतव का संदेश था मैं शान्ति का प्रतीक अति पावन था यह भारत देश पर आज मेरी सीमाएँ सुलग रही हैं कही माओवदी आग लगा रहे हैं कही अलगाववादी लोगों को भगा रहे हैं कही आतंकवादी हमको उड़ाने की योजना बना रहे हैं कहीं बन विस्फोट हो रहे हैं कही सरे आम गोलियाँ चल रही हैं कही पर कर्फ्यू लगा है कही प्रदर्शन हो रहा है ये सब देख कर मैं रो पड़ता हूँ सच में ........ आज मैं केसी करुण कवि की कारुण्यपूर्ण कविता से भी करुण कविता हूँ हमनें अपने ऊपर ही पालें हैं आस्तीन के साँप कई आज वो हम्को दँसने लगे हैं हमको हमारी सीमाओं के संकोच में कसने लगे हैं सदियों से की गयी सहृदयता का ये सुपरिणाम है हमारे अनेक भू - भाग आज हमारे दुष्मनों के नाम हैं कभी कभी अपना पुनरावलोकन भी करने लगता हूँ मैं तब हमें लगता है कि कितना ग़लत किया था इन आस्तीन के साँपों को पालकर अन्त में बै

शिक्षा और साक्षरता

शिक्षा किसी भी समाज की अपरिहार्य आवश्यकता है । जीवन को संस्कारित करने का आवश्यक साधन है । शिक्षा एक ऎसी प्रक्रिया है जो सतत् चलती रहती है । यह मात्र पुस्तकों तथा विद्यालयों तक सीमित नही है । पुस्तकों और विद्यालयों तक शिक्षा को सीमित कर हमनें इसके अर्थ में संकोच कर दिया है । शिक्षा साक्षरता भी नही है । एक निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित कहलाने का अधिकारी है यदि उसमें सभ्यता है संस्कार है । भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है । गाँवों का देश है । साक्षरता दर यहाँ अपेक्षाकृत कम है । पर इसका अर्थ यह कदापि नही कि यहाँ शिक्ष्त व्यक्तियों की संख्या भी उतनी ही है जितनी साक्षरों की। साक्षर होना शिक्षित होने के लिये अनिवार्य नही है ।अक्षर (letter) तो मात्र शिक्षा का एक माध्यम ,एक साधन है । यह परिस्थितियों पर तथा व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इस साधन का प्रयोग कर सके या करना चाहे । शिक्षा का अर्थ ज्ञान है । पुस्तकों में लिखी ज्ञान की बातें ही मात्र ज्ञान नहीं हैं अपितु ज्ञान पुस्तकों से बाहर भी है जो दैनिक-जीवन में समय-समय पर हमें मिलता रहता है। पुस्तकीय विद्या हमें मार्ग अवश्य दिखाती है पर हमें मार्

प्रेम

भारतीय संस्कृति में प्रेम के अनेक रूप हैं-वात्सल्य,स्नेह,अनुराग,रति,भक्ति,श्रद्धा आदि। परन्तु वर्तमान समय में प्रेम मात्र एक ही अर्थ में रूढ हो गया है, वो है प्यार जिसको अंग्रेज़ी मे "LOVE" कहते हैं। प्रथमतः प्रेम शब्द कहने पर लोगो के मस्तिष्क में इसी "LOVE" का दृश्य कौंधता है। प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति होती है । उसके जन्मस्थान की संस्कृति, जहाँ पर उस शब्द का प्रथमतः प्रयोग हुआ। अतः प्रेम और "LOVE" को परस्पर पर्यायवाची मानने की हमारी प्रवृत्ति ने प्रेम शब्द से उसकी पवित्रता छीन ली है। परिणामतः प्रेम शब्द कहने से हमारे मस्तिष्क में अब वह पावन भाव नही आता जो हमें मीरा,सूर, कबीर,तुलसी, जायसी, घनानन्द, बोधा, मतिराम, ताज, रसखान,देव और बिहारी प्रभृत हिन्दी कवियों तथा कालिदास जैसे संस्कृत कवियो की रचनाओं में देखने को मिलता है। आज हम विस्मृत कर चुके हैं कि इस"LOVE" के अतिरिक्त भी प्रेम का कोई स्वरूप होता है। आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को व

शलभ

शलभ! तुम जल गये जलकर मर गये लेकिन तुम रोये नहीं इस नन्दनवन में खोये नहीं क्या तुम्हारे जीवन में लुभावने अवसर नही आये ? क्या तुमको कभी हीरक चकाचौंध नही भायी ? बोलो बोलते क्यों नहीं? मौन क्यों हो मुनियों की तरह कहीं तुम्हारा ये मौन स्वीकरण तो नही ? या तुम इसे तुच्छ स्थापनीय कोटि का प्रश्न समझकर गौतम बुद्ध की तरह अनुत्तरित रखना चाहते हो । सच-सच बताना शलभ मौन से काम नही चलेगा ये गौतम बुद्ध का समाज नही है विज्ञान की विजय है आज बता दो अपने अपरिग्रह का कारण नही नार्को टेस्ट से गुजरना पडेगा यदि नही बताते तो जाओ शलभ आज तुम्हें हम छोडते हैं हमें तुम्हारी मंशा पता चल गयी है कि तुम अखबारों, पत्रिकाओं का हज़ारों पन्ना अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से रंगाये बिना अपना राज़ नही खोलोगे अभी राज़ खोल देने से कितने लोग जानेगे भला? यहां किसी को तब तक नही जाना जाता है जब तक वह हज़ारों वृक्षों की जान लेकर ’पापुलर’ न हो जाय इस बात को शायद तुम अच्छी तरह जानते हो इसीलिये प्रतीक्षा कर रहे हो मधुमास की कि जब वह आयेगा तब तुम भी अपनी "पंचम" तान छोडकर दूसरों के मल्हार को मात दे दोगे खैर ठीक है अवश्य मिलेगा तुमको