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Showing posts from September, 2008

स्त्री-पुरुष अनुपात में असंतुलन

में आजकल कन्या भ्रूण हत्याओं के कारण लगातार लड़कियों की संख्या में कमी हो रही है । यह चिन्ताजनक है । क्योंकि लड़्कियों के विना समाज चल सकता है क्या ? स्त्री और पुरुष किसी समाज के आधारभूत और अनिवार्य घटक हैं पर हमारे यहाँ आजकल इस सर्वमान्य तथ्य को नज़र अन्दाज़ करके लड़कियों को अनावश्यक तत्त्व समझा जाने लगा है इसी का परिणाम है कि आज हमारी सरकार यहाँ काम कर रहे एनजीओ सभी इस विषय में चिन्तित हैं । चिन्ता इस सन्दर्भ को लेकर भी है कि यदि स्त्री - पुरुष अनुपात में बहुत बड़ा अन्तर हुआ तो समाज में स्त्रियाँ सर्वथा असुरक्षित हो जायेंगी तथा पर्दा - प्रथा जैसी कुरीतियाँ फिर से जन्म लेने लगेगीं ।कोई भी कुरीति विषमता में ही जन्म लेती है । स्त्रियों की कम संख्या एक प्रकार की विषमता ही है । समाज में इस प्रवृत्ति के यदि तह में हम जायें तो देखेंगे कि इसका मूल कारण दहेज - प्रथा है । माता - पिता कभी यह नहीं चाहते कि उनकी पुत्री को उसके अनुरूप घर - वर न मिले

दहेज

स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी आज हम वस्तविक रूप से सभ्य नही हो पाये हैं । फिर भी स्वयं को सभ्य कहते हुए हमें कोई शर्म नही आती ।दहेज आज भी एक दानव के समान हामरे बीच व्याप्त है। न केवल वह अस्तित्व में ही है अपितु दिन - प्रतिदिन वह पुष्ट होता जा रहा है । उसकी बेल दिन दूना रात चौगुना बढ़ रही है । सच है पर थोड़ा कड़वा है वैसे सच का स्वभाव होता है कड़वा होना आज का धनी वर्ग सबसे अधिक दहेज लोभी है । उसने दहेज का नाम परिवएतन अवश्य किया है पर माल वही है । कुल मिलाकर बात वही है नई बोतल में पुरानी शराब । ये प्रथा दिन प्रतिदिन और भयावह होती जा रही है । आज दहेज के कारण कितनी निर्मलाओं की अधिक उम्र के लड़के से शादी कर दी जा रही है इसका कोई रेकार्ड सरकार के पास न कभी रहा है न रहेगा भी । आखिर ऎसा रेकार्ड रहेगा कैसे इस पर तो समाज के तथाकथित दिग्गजों दूसरे शब्दों मे बड़े लोगों का पहरा होता है । ऎसे में क्या माज़ाल की सरकारी नासिका क

जब मेरे पुत्र इन आस्तीन के साँपों के लिये फिर ....................

मैं कभी सोने की चिड़िया था कभी नन्दनवन था कभी मैं देवों के लिये मनभावन था प्रसारित होता था मुझसे ...... एकता प्रेम , विश्वबन्धुतव का संदेश था मैं शान्ति का प्रतीक अति पावन था यह भारत देश पर आज मेरी सीमाएँ सुलग रही हैं कही माओवदी आग लगा रहे हैं कही अलगाववादी लोगों को भगा रहे हैं कही आतंकवादी हमको उड़ाने की योजना बना रहे हैं कहीं बन विस्फोट हो रहे हैं कही सरे आम गोलियाँ चल रही हैं कही पर कर्फ्यू लगा है कही प्रदर्शन हो रहा है ये सब देख कर मैं रो पड़ता हूँ सच में ........ आज मैं केसी करुण कवि की कारुण्यपूर्ण कविता से भी करुण कविता हूँ हमनें अपने ऊपर ही पालें हैं आस्तीन के साँप कई आज वो हम्को दँसने लगे हैं हमको हमारी सीमाओं के संकोच में कसने लगे हैं सदियों से की गयी सहृदयता का ये सुपरिणाम है हमारे अनेक भू - भाग आज हमारे दुष्मनों के नाम हैं कभी कभी अपना पुनरावलोकन भी करने लगता हूँ मैं तब हमें लगता है कि कितना ग़लत किया था इन आस्तीन के साँपों को पालकर अन्त में बै

शिक्षा और साक्षरता

शिक्षा किसी भी समाज की अपरिहार्य आवश्यकता है । जीवन को संस्कारित करने का आवश्यक साधन है । शिक्षा एक ऎसी प्रक्रिया है जो सतत् चलती रहती है । यह मात्र पुस्तकों तथा विद्यालयों तक सीमित नही है । पुस्तकों और विद्यालयों तक शिक्षा को सीमित कर हमनें इसके अर्थ में संकोच कर दिया है । शिक्षा साक्षरता भी नही है । एक निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित कहलाने का अधिकारी है यदि उसमें सभ्यता है संस्कार है । भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है । गाँवों का देश है । साक्षरता दर यहाँ अपेक्षाकृत कम है । पर इसका अर्थ यह कदापि नही कि यहाँ शिक्ष्त व्यक्तियों की संख्या भी उतनी ही है जितनी साक्षरों की। साक्षर होना शिक्षित होने के लिये अनिवार्य नही है ।अक्षर (letter) तो मात्र शिक्षा का एक माध्यम ,एक साधन है । यह परिस्थितियों पर तथा व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इस साधन का प्रयोग कर सके या करना चाहे । शिक्षा का अर्थ ज्ञान है । पुस्तकों में लिखी ज्ञान की बातें ही मात्र ज्ञान नहीं हैं अपितु ज्ञान पुस्तकों से बाहर भी है जो दैनिक-जीवन में समय-समय पर हमें मिलता रहता है। पुस्तकीय विद्या हमें मार्ग अवश्य दिखाती है पर हमें मार्