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राष्ट्र-ध्वन्स के स्वप्नदृष्टा...

कुछ लोग ऐसे भी हैं हमारे देश में जिनको राष्ट्र-ध्वंस में अपार आनन्द आता है। जो इस देश को तार-तार करने के सपने से आननदरसपान कर भावविभोर और आत्ममुग्ध हुआ करते हैं। कोई भी ऐसी बात जो सामज् को जोड़े वाली हो, समाज में विखण्डन एवम् विभ‘झ्जन के विरुद्ध हो उसको देखते ही इनको बदहजमी हो जाती है। आजकल इनकी इस अपच को विश्व-संचार कराने के लिये एक साधन भी मिल गया है यह फेसबुक । ऐसे लोग जिनको प्रायः Intellectual बुद्धिजीवा अथवा बुद्धिमान् कहा जाता है, आज कल विशेष आहत दृष्टिगत होते हैं । वे इतने आहत हैं कि उन्होंने फेसबुक को चिकित्सालय समझ लिया है। मकड़ी जितनी निपुणता से आत्मरक्षा के लिये अपना जाल बनाती है, ये उससे भी अधिक निपुणता से अपनी और अपनी विचारधारा के रक्षार्थ शाब्दिक जाल बनाते हैं, उसे भारी-भरकम शब्दों से सजाते हैं। मकड़ी तो जाल बनाने में अपना कुछ श्रम और व्यय भी करती है, ये भी कुछ ऐसा करते हैं इस बात पर संदेह है। ऐसे कई ’सज्जन’ और ’जनहितैषी’ फेसबुक पर ऐसे गरल उगल रहे हैं, जिसा कि समुद्रमन्थन में भी न निकला होगा । अब इनका गरल पीने के लिये किसी को नीलकण्ठ बनना आवश्यक हो गया है। वैसे भी इस जमात से सावधान रहने की आवश्यकता है सर्वदा क्योंकि ऐसे बुद्धिमान् लोग वह विष होते हैं जो समूचे देश को मृतप्राय बना देते हैं। सम्भवतः इसी लिये चाण्क्यसूत्र कहता है कि "धनुर्धारी का मारा हुआ एक तीर अपने लक्ष्य को मार सके या न मार सके परन्तु बुद्धिमानों की प्रयुक्त बुद्धि नायक सहित राष्ट्र का ध्वन्स कर डालती है।-
एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता।
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्ति राष्ट्रं सनायकम्॥
ऐसी आस्तीन के ब्यालों से बचना आज अपरिहार्य है। भगवान् इन्हें सद्बुद्धि दे।

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प्रेम

भारतीय संस्कृति में प्रेम के अनेक रूप हैं-वात्सल्य,स्नेह,अनुराग,रति,भक्ति,श्रद्धा आदि। परन्तु वर्तमान समय में प्रेम मात्र एक ही अर्थ में रूढ हो गया है, वो है प्यार जिसको अंग्रेज़ी मे "LOVE" कहते हैं। प्रथमतः प्रेम शब्द कहने पर लोगो के मस्तिष्क में इसी "LOVE" का दृश्य कौंधता है। प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति होती है । उसके जन्मस्थान की संस्कृति, जहाँ पर उस शब्द का प्रथमतः प्रयोग हुआ। अतः प्रेम और "LOVE" को परस्पर पर्यायवाची मानने की हमारी प्रवृत्ति ने प्रेम शब्द से उसकी पवित्रता छीन ली है। परिणामतः प्रेम शब्द कहने से हमारे मस्तिष्क में अब वह पावन भाव नही आता जो हमें मीरा,सूर, कबीर,तुलसी, जायसी, घनानन्द, बोधा, मतिराम, ताज, रसखान,देव और बिहारी प्रभृत हिन्दी कवियों तथा कालिदास जैसे संस्कृत कवियो की रचनाओं में देखने को मिलता है। आज हम विस्मृत कर चुके हैं कि इस"LOVE" के अतिरिक्त भी प्रेम का कोई स्वरूप होता है। आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को व...

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