शिक्षा किसी भी समाज की अपरिहार्य आवश्यकता है । जीवन को संस्कारित करने का आवश्यक साधन है । शिक्षा एक ऎसी प्रक्रिया है जो सतत् चलती रहती है । यह मात्र पुस्तकों तथा विद्यालयों तक सीमित नही है । पुस्तकों और विद्यालयों तक शिक्षा को सीमित कर हमनें इसके अर्थ में संकोच कर दिया है । शिक्षा साक्षरता भी नही है । एक निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित कहलाने का अधिकारी है यदि उसमें सभ्यता है संस्कार है । भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है । गाँवों का देश है । साक्षरता दर यहाँ अपेक्षाकृत कम है । पर इसका अर्थ यह कदापि नही कि यहाँ शिक्ष्त व्यक्तियों की संख्या भी उतनी ही है जितनी साक्षरों की। साक्षर होना शिक्षित होने के लिये अनिवार्य नही है ।अक्षर (letter) तो मात्र शिक्षा का एक माध्यम ,एक साधन है । यह परिस्थितियों पर तथा व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इस साधन का प्रयोग कर सके या करना चाहे । शिक्षा का अर्थ ज्ञान है । पुस्तकों में लिखी ज्ञान की बातें ही मात्र ज्ञान नहीं हैं अपितु ज्ञान पुस्तकों से बाहर भी है जो दैनिक-जीवन में समय-समय पर हमें मिलता रहता है। पुस्तकीय विद्या हमें मार्ग अवश्य दिखाती है पर हमें मार्ग पर चला नही सकती ह्। हमें अनुभव के गहरे सागर में गोते लगाना बता सकती है पर सीप का अभिज्ञान नही करा सकती । उस अनुसार हम अनपढ कह सकते हैं । पर वस्तुतः हमें उनको ऎसा मानने में संदेह होता है । कबीर जैसे ज्ञानमार्गी कवि आज की परिभाषा के अनुसार अनपढ कहे जाते हैं, जबकि उनके दोहे पढे-लिखे व्यक्तियों के भी छक्के छुडा सकते हैं । इसका एकमात्र कारण हमारी आयायित मानसिकता है । शताब्दियों की परतंत्रता ने हमारे मानस को परतंत्र बना दिया है और आज भी हम उससे मुक्त नही हो पाये हैं । इसी लिये हमने अपने लिये बनाये गये मापदण्ड भी पश्चिम से आयात कर लिये हैं पर क्या कभी मिट्टी के मटके में हाथी बैठ सकता है । नही ऎसा कदापि सम्भव नही है । वैसे ही स्थिति आज हमारी है हम आयातित मापदण्डों पर साक्षर और निरक्षर के मापन पर करते हैं । और ऎसा करते समय हम अपनी प्राचीनतम परम्परा श्रुति परम्परा को भूल जाते हैं जिसकी देन हामारे वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण ,आरण्यक, उपनिषद् हैं । पाश्चात्य परम्परा का सूत्रपात बाइबिल से हुआ है । जो प्रारम्भ से ही लिखित है । अतः वहाँ प्रत्येक मापदण्ड लिखित को केन्द्र में रखकर बना है । हमारे यहाँ "लिखित" की कोई संकल्पना नही रही । भारतीय परम्परा श्रुति परम्परा है जिसमें मौखिक केन्द्र में है। लिखित का यहाँ कभी कोई महत्त्व नही रहा है । अतः हमारे मापदण्ड भी मौखिक ही हैं तथा लिखित के जामे को पहनाने से वे खरे नहीं उतर सकते ।शिक्षा की संकल्पना भी मौखिक है यहाँ। पर लिखित मापदण्ड को आरोपित कर हम "अनपढ" बने हुऎ हैं। जबकी यहाँ का जन-जन शिक्षित है । यदि निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाये तो यहाँ आधुनिक मापदण्ड के अनुसार जितने शिक्षित हैं उनमें से अनेक भारतीय मापदण्ड के अनुसार अशिक्षित की श्रेणी में आयेंगे ।
शिक्षा किसी भी समाज की अपरिहार्य आवश्यकता है । जीवन को संस्कारित करने का आवश्यक साधन है । शिक्षा एक ऎसी प्रक्रिया है जो सतत् चलती रहती है । यह मात्र पुस्तकों तथा विद्यालयों तक सीमित नही है । पुस्तकों और विद्यालयों तक शिक्षा को सीमित कर हमनें इसके अर्थ में संकोच कर दिया है । शिक्षा साक्षरता भी नही है । एक निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित कहलाने का अधिकारी है यदि उसमें सभ्यता है संस्कार है । भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश है । गाँवों का देश है । साक्षरता दर यहाँ अपेक्षाकृत कम है । पर इसका अर्थ यह कदापि नही कि यहाँ शिक्ष्त व्यक्तियों की संख्या भी उतनी ही है जितनी साक्षरों की। साक्षर होना शिक्षित होने के लिये अनिवार्य नही है ।अक्षर (letter) तो मात्र शिक्षा का एक माध्यम ,एक साधन है । यह परिस्थितियों पर तथा व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह इस साधन का प्रयोग कर सके या करना चाहे । शिक्षा का अर्थ ज्ञान है । पुस्तकों में लिखी ज्ञान की बातें ही मात्र ज्ञान नहीं हैं अपितु ज्ञान पुस्तकों से बाहर भी है जो दैनिक-जीवन में समय-समय पर हमें मिलता रहता है। पुस्तकीय विद्या हमें मार्ग अवश्य दिखाती है पर हमें मार्ग पर चला नही सकती ह्। हमें अनुभव के गहरे सागर में गोते लगाना बता सकती है पर सीप का अभिज्ञान नही करा सकती । उस अनुसार हम अनपढ कह सकते हैं । पर वस्तुतः हमें उनको ऎसा मानने में संदेह होता है । कबीर जैसे ज्ञानमार्गी कवि आज की परिभाषा के अनुसार अनपढ कहे जाते हैं, जबकि उनके दोहे पढे-लिखे व्यक्तियों के भी छक्के छुडा सकते हैं । इसका एकमात्र कारण हमारी आयायित मानसिकता है । शताब्दियों की परतंत्रता ने हमारे मानस को परतंत्र बना दिया है और आज भी हम उससे मुक्त नही हो पाये हैं । इसी लिये हमने अपने लिये बनाये गये मापदण्ड भी पश्चिम से आयात कर लिये हैं पर क्या कभी मिट्टी के मटके में हाथी बैठ सकता है । नही ऎसा कदापि सम्भव नही है । वैसे ही स्थिति आज हमारी है हम आयातित मापदण्डों पर साक्षर और निरक्षर के मापन पर करते हैं । और ऎसा करते समय हम अपनी प्राचीनतम परम्परा श्रुति परम्परा को भूल जाते हैं जिसकी देन हामारे वेद, वेदाङ्ग, ब्राह्मण ,आरण्यक, उपनिषद् हैं । पाश्चात्य परम्परा का सूत्रपात बाइबिल से हुआ है । जो प्रारम्भ से ही लिखित है । अतः वहाँ प्रत्येक मापदण्ड लिखित को केन्द्र में रखकर बना है । हमारे यहाँ "लिखित" की कोई संकल्पना नही रही । भारतीय परम्परा श्रुति परम्परा है जिसमें मौखिक केन्द्र में है। लिखित का यहाँ कभी कोई महत्त्व नही रहा है । अतः हमारे मापदण्ड भी मौखिक ही हैं तथा लिखित के जामे को पहनाने से वे खरे नहीं उतर सकते ।शिक्षा की संकल्पना भी मौखिक है यहाँ। पर लिखित मापदण्ड को आरोपित कर हम "अनपढ" बने हुऎ हैं। जबकी यहाँ का जन-जन शिक्षित है । यदि निरपेक्ष दृष्टि से देखा जाये तो यहाँ आधुनिक मापदण्ड के अनुसार जितने शिक्षित हैं उनमें से अनेक भारतीय मापदण्ड के अनुसार अशिक्षित की श्रेणी में आयेंगे ।
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acche hai
aasa hai aage be likte rahene