भारतीय संस्कृति में प्रेम के अनेक रूप हैं-वात्सल्य,स्नेह,अनुराग,रति,भक्ति,श्रद्धा आदि। परन्तु वर्तमान समय में प्रेम मात्र एक ही अर्थ में रूढ हो गया है, वो है प्यार जिसको अंग्रेज़ी मे "LOVE" कहते हैं। प्रथमतः प्रेम शब्द कहने पर लोगो के मस्तिष्क में इसी "LOVE" का दृश्य कौंधता है। प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति होती है । उसके जन्मस्थान की संस्कृति, जहाँ पर उस शब्द का प्रथमतः प्रयोग हुआ। अतः प्रेम और "LOVE" को परस्पर पर्यायवाची मानने की हमारी प्रवृत्ति ने प्रेम शब्द से उसकी पवित्रता छीन ली है। परिणामतः प्रेम शब्द कहने से हमारे मस्तिष्क में अब वह पावन भाव नही आता जो हमें मीरा,सूर, कबीर,तुलसी, जायसी, घनानन्द, बोधा, मतिराम, ताज, रसखान,देव और बिहारी प्रभृत हिन्दी कवियों तथा कालिदास जैसे संस्कृत कवियो की रचनाओं में देखने को मिलता है। आज हम विस्मृत कर चुके हैं कि इस"LOVE" के अतिरिक्त भी प्रेम का कोई स्वरूप होता है।
आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को विस्मृत करके गर्वानुभूति से फूले नही समाते जिसके कारण भारत अतीत काल में शताब्दियों तक विश्व के लिये दर्शनीय और स्पृहणीय बना रहा तथा मुगल सम्राटों तक ने जिसको महत्त्व दिया। जो संस्कृति जिस वस्तु के जितने रूपों का दर्शन करती है उसके पास उस वस्तु के लिये उतने शब्द होते हैं । हमारे ऋषियों ने , हमारे स्वनामधन्य पूर्वजों ने प्रेम के असंख्य रूपों को देखा था, उसी दर्शन का परिणाम है कि हमारी संस्कृति में प्रेम के लिये अनेक शब्द हैं। इस शब्दों के मर्म को ऎसा कोई व्यक्ति नही समझ सकता जिसने इसे अनुभव न किया हो। क्योंकि इसको शब्दो द्वारा पूर्णतः व्याख्यायित करना असम्भव नही तो दुष्कर अवश्य है। प्रेम कोई गुड्डे-गुडियों का खेल नही सच्चे अर्थों में यह एक साधना है । प्रेम जैसे शब्द की जो अपने अन्तस् में अनेक शब्दों को सँजोये हुए है "LOVE" जैसे उथले शब्द से तुलना करना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है और कहीं न कहीं अपने बारे में हमारी अल्पज्ञता का परिचायक है । इसके विष्य में एक तरफ कहा गया है कि-"प्रेम कौ पन्थ कराल महा तलवार के धार पर ध्याइबो है" तथा दूसरी तरफ कहा गया है कि"अति सूधो प्रेम कौ मारग है जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं"। हमारे कवियो ने उषाकाल से ही प्रेम के स्वरूप पर चर्चा करनी प्रारम्भ कर दी थी चाहे वह पुराणी युवती उषा के विषय में हो अथवा पुरुरवा-उर्वशी के आख्यान के रूप में हो । कालिदास ने तो प्रेम का अद्भुत रूप चित्रित ही किया है। यदि हम सम्पूर्ण भारतीय साहित्य पर विहंगम दृष्टि डाले तो शायद ही किसी भाषा का कोई कवि बचा हो जिसने इस विषय पर अपनी कलम न चलायी हो। पर आज जिस संकुचित अर्थ में प्रेम को लिया जा रहा है उस अर्थ में उसे कभी नहीं लिया गया।
आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को विस्मृत करके गर्वानुभूति से फूले नही समाते जिसके कारण भारत अतीत काल में शताब्दियों तक विश्व के लिये दर्शनीय और स्पृहणीय बना रहा तथा मुगल सम्राटों तक ने जिसको महत्त्व दिया। जो संस्कृति जिस वस्तु के जितने रूपों का दर्शन करती है उसके पास उस वस्तु के लिये उतने शब्द होते हैं । हमारे ऋषियों ने , हमारे स्वनामधन्य पूर्वजों ने प्रेम के असंख्य रूपों को देखा था, उसी दर्शन का परिणाम है कि हमारी संस्कृति में प्रेम के लिये अनेक शब्द हैं। इस शब्दों के मर्म को ऎसा कोई व्यक्ति नही समझ सकता जिसने इसे अनुभव न किया हो। क्योंकि इसको शब्दो द्वारा पूर्णतः व्याख्यायित करना असम्भव नही तो दुष्कर अवश्य है। प्रेम कोई गुड्डे-गुडियों का खेल नही सच्चे अर्थों में यह एक साधना है । प्रेम जैसे शब्द की जो अपने अन्तस् में अनेक शब्दों को सँजोये हुए है "LOVE" जैसे उथले शब्द से तुलना करना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण है और कहीं न कहीं अपने बारे में हमारी अल्पज्ञता का परिचायक है । इसके विष्य में एक तरफ कहा गया है कि-"प्रेम कौ पन्थ कराल महा तलवार के धार पर ध्याइबो है" तथा दूसरी तरफ कहा गया है कि"अति सूधो प्रेम कौ मारग है जहाँ नैकु सयानप बाँक नहीं"। हमारे कवियो ने उषाकाल से ही प्रेम के स्वरूप पर चर्चा करनी प्रारम्भ कर दी थी चाहे वह पुराणी युवती उषा के विषय में हो अथवा पुरुरवा-उर्वशी के आख्यान के रूप में हो । कालिदास ने तो प्रेम का अद्भुत रूप चित्रित ही किया है। यदि हम सम्पूर्ण भारतीय साहित्य पर विहंगम दृष्टि डाले तो शायद ही किसी भाषा का कोई कवि बचा हो जिसने इस विषय पर अपनी कलम न चलायी हो। पर आज जिस संकुचित अर्थ में प्रेम को लिया जा रहा है उस अर्थ में उसे कभी नहीं लिया गया।
Comments
" प्रेम किया है तो करने का यह अभिमान कहाँ से आया ?-सब कुछ यहाँ लुटाया था तो फ़िर मस्तक कैसे उग आया ?
जो मांगे प्रतिदान प्रेम में सिर्फ़ बुद्धि व्यापारी होगी .......
शलभ कविता विचारपूर्ण और सुंदर है !बधाई !
Love ofcourse is undefinable and one who can define it is definitly one with God. I think Love is Spiritual and takes us not to heaven but to paradise.
Avatar Meher Baba has said "You and 'Me' are not 'We' but One". I think this is Love.
May I request you to read a book named "Discourses" whcih is actually a collection of discourses by Avtar Meher Baba who is the last Avtar of thsi age. I am sure you will be able to get a new insight into the subject.
Regards
Dr. Chandrajiit Singh
Regards
Dr. Chandrajiit Singh
likhna aapko aata hai aur ise jaari rakhiyega.
. Baba is God of love and has written a lot on this subject and fills our heart with it.
Regards and Jai Baba To You
Chandar
फुर्सत हो तो मेरे ब्लॉग पर भी दस्तक दें स्वागत है