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योग दिवस: वैश्विक शान्ति और समन्वय की आधारशिला

अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस का मनाया जाना एक परिवर्तन का संकेत है। यह एक Paradigm shift का श्रीगणेश है, जिसमें पूरा विश्व एक साथ है। कापरनिकस के बाद एक परिवर्तन आयाथा, डेकार्ट के साथ एक परिवर्तन आया था जिसने विश्व का नक्शा ही बदल दिया। इस परिवर्तन ने विश्व को बनाया या बिगाड़ा यह एक लम्बा विमर्श है। पर यह तो तय है कि इससे कुछ आबाद हुये तो कुछ बर्बाद हुये, पूरा विश्व एक साथ आह्लादित नहीं हुआ।
आज योग दिवस से जो परिवर्तन हो रहा है, आइंसटाइन के बाद से विश्व इस परिवर्तन की आशा कर रहा था। यह एक सकारात्मक परिवर्तन है। यहाँ कहीं संहार नहीं सर्वत्र सृष्टि है, कहीं शस्त्र-प्रहार नहीं सर्वत्र श्रद्धा, भक्ति, अनुरक्ति है। भौतिकता से बँधे संसार की यह मुक्ति है। योगदिवस भौतिकता से अध्यात्म की ओर प्रस्थान है। इस प्रस्थान में पूरा विश्व कदमताल कर रहा है। योगदिवस भारत-भारतीयता की वह विजय है जिसके लिये कभी रक्तपात नहीं हुआ, जिसके लिये कभी अस्त्र-शस्त्र नहीं चमके, जिसने कभी व्यर्थ प्रसार की स्वार्थपूर्ण इच्छा नहीं रखी, जिसने कभी धनबल और बाहुबल के सहारे हृदयों को नहीं जीता। यह ऋषियों की निःस्वार्थ, सेवा, साधना और दर्शनशक्ति का प्रतिफलन है  जो हृदय जीतता नहीं जिस पर हृदय न्यौछावर होता है। यह वह परमार्थसिद्धि है जो पाश (बन्धन) के न होते ही बद्ध कर लेती है संसार को। यह ज्ञान और प्रज्ञा की विजय है। यह शस्त्र पर शास्त्र की विजय है। स्वार्थ पर परमार्थ की विजय है। विखण्डन पर संलयन की विजय है। यह ’आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः’ (अर्थात् ’अच्छे विचारों को सब ओर से आने दो) को चरितार्थ करने वाली एक प्रत्यक्ष घटना है। यह ऐसी ऐतिहासिक घटना है जो आने वाले वर्षों में विश्व-शान्ति की नींव सिद्ध होगी। यह इस बात का द्योतक है कि विश्व अब संघर्ष नहीं शान्ति और समन्वय की तरफ बढ़ रहा है।

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प्रेम

भारतीय संस्कृति में प्रेम के अनेक रूप हैं-वात्सल्य,स्नेह,अनुराग,रति,भक्ति,श्रद्धा आदि। परन्तु वर्तमान समय में प्रेम मात्र एक ही अर्थ में रूढ हो गया है, वो है प्यार जिसको अंग्रेज़ी मे "LOVE" कहते हैं। प्रथमतः प्रेम शब्द कहने पर लोगो के मस्तिष्क में इसी "LOVE" का दृश्य कौंधता है। प्रत्येक शब्द की अपनी संस्कृति होती है । उसके जन्मस्थान की संस्कृति, जहाँ पर उस शब्द का प्रथमतः प्रयोग हुआ। अतः प्रेम और "LOVE" को परस्पर पर्यायवाची मानने की हमारी प्रवृत्ति ने प्रेम शब्द से उसकी पवित्रता छीन ली है। परिणामतः प्रेम शब्द कहने से हमारे मस्तिष्क में अब वह पावन भाव नही आता जो हमें मीरा,सूर, कबीर,तुलसी, जायसी, घनानन्द, बोधा, मतिराम, ताज, रसखान,देव और बिहारी प्रभृत हिन्दी कवियों तथा कालिदास जैसे संस्कृत कवियो की रचनाओं में देखने को मिलता है। आज हम विस्मृत कर चुके हैं कि इस"LOVE" के अतिरिक्त भी प्रेम का कोई स्वरूप होता है। आज का "प्रेम कागज़ी फूलों के गुलदस्तों" में उलझकर अपनी वास्तविक सुगन्ध खो बैठा है। आज हम अपने शाश्वत, सनातन प्रेम के उस स्वरूप को व

मृगमरीचिका में खोया है वसन्त

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