गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी को प्रोत्साहित किया जाना बहुत ही स्वागत योग्य कदम है। यदि इसका सही क्रियान्वयन होता है तो न केवल हिन्दी का आत्मविश्वास बढ़ेगा अपितु समस्त भारतीय भाषाओं की चमक वापस आयेगी। अंग्रेजी जैसी अ-बौद्धिक भाषा भारत की समस्त भाषाओं पर ग्रहण बनकर व्याप्त हो गयी है, जिससे न केवल इस देश की संस्कृति प्रभावित हो रही है अपितु साहित्य भी सिकुड़ रहा है। आज स्थिति यह हो गयी है कि बहुत से ऐसे पढ़े-लिखे लोग हैं जिनको अपनी भाषा में अपनी भावनाओं को ठीक से व्यक्त कर पाने में समस्या का अनुभव होता है। अंग्रेजी को अ-बौद्धिक भाषा कहना बहुत ही उपयुक्त है क्योंकि यदि इसके साहित्य की आधारशिला देखी जाये तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस तरह ग्रीक और लैटिन के खण्डहरों पर उगी हुयी काई है यह भाषा? ये अम्ग्रेज लोग बड़े ही गर्व से इलियड, ओडिसी, इनीद को अपने महाकाव्यों में सम्मिलित करते हैं। बहुत ही घमण्ड के साथ प्लेटो, अरस्तू को उद्धृत करते हैं। इसके साथ ही इनका इतिहास ग्रीक को कुचलने, लैटिन को फूँकने में संलग्न रहा है। दूसरी भाषा का अस्तित्त्व समाप्त कर उसके साहित्य सम्पदा पर आधिपत्य कर ये लोग राजा बने हुये हैं। यदि अंग्रेजी को देखा जाये तो जॉन मिल्टन के पैराडाइज लॉस्ट एक महाकाव्य मिलता है। पिछले शताब्दियों से अंग्रेजी की बौद्धिकता बढ़ाने का प्रयास निरन्तर चल रहा है, जिसके अन्तर्गत विश्व का समस्त समृद्ध साहित्य भण्डार अनूदित किया जा रहा है।
याहाँ प्रश्न अंग्रेजी के विरोध का भी नहीं है। किसी विरोध से सकारात्मकता नहीं प्रारम्भ होती। यहाँ अपनी भाषा का प्रसंग है। उस भाषा का जो स्वतन्त्रता आन्दोलन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। जिसके माध्यम से क्रान्तिकारियों को दिशा दी गयी। जो परतन्त्र भारत के व्यथा की अभिव्यक्ति का माध्यम थी। जब हम हिन्दी भाषा की बात करते हैं तब उसके साथ-साथ हिन्दी की अनेक बोलियाँ जिसका क्षेत्र पंजाब से लेकर अरुणाचल तक विस्तृत है, सभी उसमें सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार यह सीधे तौर पर एक व्यापक भूभाग की भाषा है। इसके साथ ही इस देश के सभी महानगरों एवम् बड़े नगरों में भी हिन्दी स्वतः स्वीकृत है। अतः यदि हिन्दी के संवर्द्धन की बात होती है तो यह किसी करुणानिधि अथवा जयललिता को बुरी नहीं लगनी चाहिये। यदि यह बात तमिलनाड़ु के नेताओं को खटकती है तो निश्चय ही यह उनके राजनैतिक द्वेष का परिणाम है।
संविधान सभा के विद्वान् सदस्यों ने १२-१४ सितम्बर १९४९ को गहन विचार-विमर्श और बहस के बाद हिन्दी को कामकाज की भाषा और अंग्रेजी को १५ वर्ष तक सहयोगी कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार किया था। इसमें कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी, गोपालस्वामी आयंगर प्रभृत लोग सम्मिलित थे। नेहरू का भी मानना थी कि किसी देश की उन्नति अपनी ही भाषा से ही हो सकती है। देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिये हिन्दी आवश्यक थी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी(जिन्होंने प्रारम्भ में हिन्दी का विरोध किया था) ने भी हिन्दी को स्वीकार किया। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे।
गृह मन्त्रालय द्वारा हिन्दी के प्रोत्साहन का स्वागत किया जाना चाहिये। यदि हिन्दी समृद्धि होगी तो तमिल, मलयालम, कन्नड़, बांग्ला, असमिया, गुजराती, मराठी, बोडो, संथाली, मणिपुरी, तेलुगु आदि सभी भाषायें समृद्ध होंगी। सभी के साहित्य-निधि का आदान-प्रदान होगा।
बस हिन्दी का यह प्रोत्साहन कागजों और वक्तव्यों तक सीमित होकर न रह जाय, इसी बात का ध्यान रखना है। यदि यथार्थ में यह क्रियान्वित हो और बैठकों के विवरण् अतक के लिये अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद पर निर्भरता कम हो, समाप्त हो, तो यह भाषा के जीवन के क्षेत्र में गृहमन्त्रालय का क्रान्तिकारी कदम होगा। इससे संस्कृति समृद्धि होगी, देश का आत्मविश्वास बढ़ेगा। उपनिवेशवादी मानसिकता से थोड़ा मुक्ति मिलेगी और भारत का युवा चेयर को कुर्सी और टेबल को मेज कहने में सकुचायेगा नहीं, लगायेगा नहीं।
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