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मृगमरीचिका में खोया है वसन्त

वसन्त ऋतु आयी । वसन्तपञ्चमी का उत्सव भी धूमधाम से सम्पन्न हुआ । पीले वस्त्रों ने पीले पुष्पों की रिक्तता के अनुभव को कुछ कम करने का प्रयास किया । साहित्यजगत् से लेकर सामान्य जगत् तक पराग, मकरन्द, किंशुक, सुगन्ध, पुष्प, कोपल, पल्लव, किंजल्क आदि अनेक वासन्ती शब्द सुनायी देने लगे । शब्दों में, कपड़ों में, चित्रों में एक दिन के लिये वसन्त का आभास होंने लगा । इस आभास से मन भी वासन्ती अभा में आभासित हो चला । पर बिना पुष्प देखे, पराग के स्पर्श से आती हुयी वायुपुञ्जों की सुगन्धि का अनुभव किये भला मन कैसे वसन्ती हो सकता है । पत्रा में वसन्त आ जाने से तिथि-परिवर्तन होते ही उत्सव तो प्रारम्भ हो जाता है, पर मानस की वास्तविक उत्सवधर्मिता तो प्रकृति के उत्सव एवं आह्लाद से नियन्त्रित होती है । प्रकृति का आह्लाद ही हृदय एवं मन को उल्लसित कर सकता है । कृत्रिम उल्लास तो चन्द क्षणों का अतिथि होता है, जो उसका आतिथ्य स्वीकार करते ही अपनी आगे की यात्रा हेतु प्रस्थान करता है । प्रकृति के अभाव में कृत्रिमता कबतक वास्तविक आनन्दानुभूति का अभिनय कर सकती है । एक आदर्श अभिनेत्री की भाँति कृत्रिमता अपना लावण्य दिखाकर, अपनी कृत्रिम अनुभूतियों का सुन्दर मञ्चन कर रंगमञ्च से उतनी ही सत्वर गति से चली जाती है जितनी सत्वर गति से उसका आगमन होता है । उसके रंगमंच से प्रस्थान करते ही उसके आगमन से उत्पन्न समस्त उल्लास भी उड़ जाता है । पुनः जीवन उसी भागदौड़ के चक्र में घूमने लगता है ।
यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना मात्र वसन्त के साथ ही नहीं घटती अपितु अब अट्टालिकाओं से सुसज्जित, विद्युत से चमत्कृत, मोटर-गाड़ियों के धुन से गुञ्जित, सीसा मिश्रित लोहे की अवनालिकाओं से सिञ्चित, एल्युमिनियम की चन्द्रिका से आच्छादित, प्लास्टर ऑफ पेरिस एवं एशियन पेण्ट से सुलेपित, पेट्रोल, डीजल के पराग से सुगन्धित, कूड़ा-करकट के पहाड़ों से आवृत्त तथा प्रस्तरजड़ित-ईंटखचित सड़कों, गलियों, वीथियों से अलंकृत नगरों-महानगरों में सभी पर्वों एवं त्योहारों के साथ यह घटना घटती है । वसन्त इसमें कोई अपवाद नहीं है ।

वसन्त कोई मात्र एक त्योहार नहीं अपितु एक नवोन्मेष है । प्रकृति का नवोन्मेष । जगती का नवोन्मेष । एक प्रादुर्भाव, जिसपर सृष्टि टिकी है । एक अंकुर जिसपर प्रकृति का अस्तित्त्व टिका है । एक पल्लव जिसपर मानवता आश्रित है । एक पराग जिसपर जरायुज, अण्डज, उद्भिज एवं स्वेदज तक चिराश्रित हैं । एक स्पन्दन जिसमें जीवन-तत्त्व निहित है । वसन्त एक घटना है । इस सृष्टि ई सूक्ष्मतम एवं महानतम घटना । भारत इस वसन्त की सुन्दर अल्पनाभूमि रहा है । भारतभूमि वसन्त की वासन्ती आभा की वेदिका है जिसमें स्वयं कामदेव रंग भरते हैं । आनादिकाल से जब यह भूमि वसन्त की रमणस्थली रही है । वसन्त यहाँ के कण-कण को आह्लादित करता रहा है । यहाँ वनदेवी के शृंगार से लेकर हृदय-वीणा के झंकार तक का श्रेय वसन्त को दिया जाता रहा है । महानतम कवियों की गिरा वसन्त के गुणगान में श्रान्त नहीं हुयी है अपितु सब्अने वसन्त-वर्णन कर स्वयम् को धन्य माना है । ऋतुओं में इसे ऋतराज का महान् स्थान प्रदान किया गया है । अनंगदेव के सभी पंचशर जिसकी कल्पना भारतीय वाङ्गमय सदैव करता रहा है, उस अनूठीए कल्पना का आधारस्थल वसन्त है , उसकी साकारस्थली वसन्त है । अट्टालिकाओं से दूर कुञ्जों में मुखरित नवजीवन के चिन्ह देखकर, विकसित कलियों एवं विकचित पुष्पों को देखकर एवं उनके स्पर्श से सुगन्धि-निमज्जित वायु का अनुभव कर वसन्त का अनुभव साकार होता है । हृदय उल्लसित हो उठता है, वातावरण प्रसन्नता से भर उठता है और अन्तस्थल की समस्त अनुभूतियाँ साक्षात् होती हैं ।
महाकवि कालिदास ने अपने काव्य-ग्रन्थ ऋतुसंहारम् में षड्-ऋतुओं का वर्णन किया है जिसमें वसन्त का वर्णन सर्वाधिक ललित एवं मनोरम है । कालिदास की सूक्ष्मदृष्टि प्रकृति का गहनतम निरीक्षण करके अपनी दर्शना शक्ति का सम्यक् उपयोग कर वर्णना शक्ति का प्रदर्शन करती है । वसन्त के आगमन मात्र से ही सभी वृक्ष पुष्पों से लद गये हैं, जल में कमल खिल गये हैं अर्थात् सरोवर कमलों से भर गये हैं, स्त्रियाँ सकामा हो गयी हैं, वायु सुगन्धित हो गयी है, सन्ध्याबेला सुहावनी लगने लगी है और दिन सुहावने लगने लगे हैं । वास्तव में वसन्त ऋतु में सब सुरम्य होता है-
द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियः सकामाः पवनः सुगन्धिः ।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्च रम्याः सर्वं प्रिये चारुतरं वसन्ते ॥ ऋतुसंहारम्, ६.२
वसन्त में पल्लव, कोपल, मञ्जरियों, कोयलों एवं भ्रमरों का जीवनवृत्त बहुत ही मनोरम दृश्य उपस्थित करता है । प्रकृति की नूतनता को, उनकी नवलता को साकार करने का चिन्ह इन्हीं आलम्बनों में निहित है । कालिदास ऋतुसंहारम् में इनकी अवस्था का बहुत सुन्दर चित्रण करते हैं । लाल कोंपलों के गुच्छों से झुके हुये और सुन्दर मञ्जरियों से लदी शाखाओं वाले आम के वृक्ष जब पवन के झोकें में हिलने लगते हैं, तो उन्हें देख-देखकर अंगनाओं के मन उत्सुकता से भर उठते हैं –
ताम्रप्रवालस्तबकावनम्राश्चूतद्रुमाः पुष्पितचारुशाखाः ।
      कुर्वन्ति कामं पवनावधूताः पर्युत्सुकं मानसमङ्गनानाम् ॥ ऋतुसंहारम्, ६.१७

किंशुक वसन्त के आगमन का प्रतीक एवं साहित्य में अत्यधिक वर्णित पुष्प है । इसे पलाश, ढाक एवम् टेसू आदि अन्य नामों से भी जानते हैं । इसकी अद्भुत सौन्दर्य वसन्त-ऋतु का स्वयमेव बखान करता है । कालिदास वसन्तऋतु-वर्णन प्रसंग में किंशुकवनों के सौन्दर्य का अप्रतिम वर्णन करते हैं कि किंशुकवन में वृक्षों की फूली हुयी शाखायें आग की लपटों के समान प्रज्वलित हो रही हैं और पृथ्वी उन किंशुकवनों की सुन्दरता में ऐसे आवृत्त है जैसे वह लाल साड़ी पहने हुये कोई नववधू हो –
आदीप्तवह्निसदृशैएमरुताऽवधूतैः सर्वत्र किंशुकवनैः कुसुमावनम्रैः ।
  सद्यो वसन्तसमयेन समाचितेयं रक्तांशुका नववधूरिव भाति भूमिः ॥ ऋतुसंहारम्, ६.२१
वसन्तऋतु सभी के लिये आनन्ददायक है, समस्त मनों की आह्लादक है । कालिदास के वर्णन में पर्वतों की चोटियाँ एक छोर से दूसरे छोर तक पुष्पों से ढँकी हुयी हैं । सर्वत्र फूलों से लदे वृक्ष खड़े हैं । पथेरीले पहाड़ों में भी फूल खिले हुये हैं । कोयल की कूक और भौरों के गुञ्जार से वातावरण  आनन्दित है –
नानामनोज्ञकुसुमद्रुमभूषितान्ता-
न्हृष्टान्यपुष्टनिनदाकुलसानुदेशान् ।
शैलेयजालपरिणद्धशिलातलान्ता-
न्दृष्ट्वा नतः क्षितिभृतो मुदमेति सर्वः ॥ ऋतुसंहारम्, ६.२७
वसन्तऋतु अनंगदेव की ऋतु मानी जाती है । ऐसा माना जाता है कि कामदेव अपने पाँचों बाणों के साथ वसन्त ऋतु में उपस्थित होते हैं । कुसुमायुध का आलम्बन बनने के लिये आवश्यक वातावरण का वसन्तऋतु प्रस्तुतीकरण करती है ।रमणीय सन्ध्याबेला, पसरी हुयी चन्द्रिका, कोयल की कूक, सुगन्धित पवन, मतवाले भ्रमरवृंद की गुंजार और रात्रिकाल में आसवपान ये सब कालिदास की दृष्टि में कामदेव को जगाये रखनेवाली रसायन हैं –
रम्यः प्रदोषसमयः स्फुटचन्द्रभासः
पुँस्कोकिलस्य विरुतं पवनः सुगन्धिः
मत्तालियूथविरुतं निशि सीधुपानं
 सर्व रसायनमिदं कुसुमायुधस्य ॥ ऋतुसंहारम्, ६.३५
इस प्रकार वसन्त का रम्य वर्णन करते हुये महाकवि कालिदास कामना करते हैं कि मन्द-मन्द पवनों से शृंगार की शिक्षा देने वाला काअम का मित्र वसन्त सबको सदा प्रसन्न रखे –
शृंगारदीक्षागुरुः कल्पान्तः मदनप्रियो दिशतु वः पुष्पागमों मङ्गलम् ॥, ऋतुसंहारम्, ६.३६
कवियों की सर्जनाशक्ति का एक प्रमुख सोपान रहा है वसन्त-वर्णन । इतना रमणीक वातावरण, इतनी चारु प्रकृति-व्यवस्था एवं इतनी मनोहर अवस्था अन्य किसी ऋतु में दुर्लभ है । यहाँ सब नवीन है, सर्वत्र नवीन है । इसीलिये इस नवीनता एवं चारुता का वर्णन एवं दर्शन कवियों का एक महत्त्वपूर्ण विषय रहा है ।
हिन्दीसाहित्य में कवि पद्माकर ने वसन्त की सार्वत्रिक उपस्थित बताते हुये उसका सुन्दर वर्णन किया है-
कूलन में, केलि में, कछारन में, कुञ्जनमें,
क्यारिन में, कलिन में, कलीन किलकन्त है ।
कहें पद्माहर परागन में पौनहू में,
पानन में, पीक में, पलासन पगंत है ।
द्वार में, दिसान में, दुनी में, देस-देसन में,
देखौ दीप-दीपन में , दीपत दिगंत है ।
बीथिन में, ब्रज में, नवेलिन में, बेलिन में
बनन में, बागन में, बगर् यो बसन्त है ॥
आज इन सभी रूपों में वसन्त की उपस्थिति देख पाना असम्भव प्रतीत होता है । दूर कहीं वनों में, कुञ्जों में, ग्रामों में एवं उनके उद्यानों में इस वर्णन का आंशिक दर्शन अवश्य सम्भव है । भारत रमणीक भूमि रही है और आज भी है । आज इसके सौन्दर्य एवं सुषमा में संकुचन के पश्चात भी यह अपनी रमणीयता से वञ्चित कदापि नहीं है । अभी भी नगराज हिमालय इसके सौन्दार्य में निरन्तर वृद्धि करता हुआ अडिग खड़ा है । सदानीरा जाह्नवी इसकी जीवनी शक्ति के निरन्तर वर्द्धन हेतु सतत् प्रवाहित हैं । सह्याद्रि से लेकर आराकानयोमा तक विभिन्न पर्वतमालायें एवं पर्वतशिखर इस भारतभूमि को नानाप्रकार के दृश्यों एवं रत्नों से परिपूर्ण करते हैं । पर्वतराज हिमालय से सिन्धुराज हिन्दमहासागर तक, कच्छ के गम्भीर रण से अरुणाचल प्रदेश की अचल सुषमा तक समस्त सौन्दर्य इसी भारतभूमि में प्राणभूत होकर समाहित है । ऋतुराज भारतमाता के सर्वविधि सर्वांश शृंगार हेतु अपनी समग्रता के साथ प्रतिवर्ष प्रस्तुत होता है एवं माँ की ललित छवि का निर्माण करता है, उसके अप्रतिम सौन्दर्य को उद्घाटित करता है । यह वसन्तऋतु प्रतिवर्ष मात्र वर्तमान राजनैतिक सीमाओं से आबद्ध भारत ही नहीं अपितु उस अखण्ड भारतभू को निःसंकोच अपने अतुल सामर्थ्य से अलंकृत करती है जिसे “आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता” कहा गया है ।
आज वसन्त का सम्यक् दर्शन न होंने पर भी संस्कृति का प्रवाह वसन्तागमन पर स्वागत हेतु जनमानस में अद्भुत वात्सल्य का सृजन करता है । अट्टालिकाओं के आवरण में दर्शन से वञ्चित रहने पर भी मन को वसन्त-दर्शन हेतु आकुल करता है और बाहर प्रकृति की गोद में निकलकर विचरण करने का आह्वान् करता है । निरन्तर चलायमान, गतिशील जीवन की गति को थामकर कुछ समय आत्मानुभव हेतु मातृवत् प्रोत्साहन देती है वसन्तऋतु । न चाहते हुये भी, अन्यमनस्क भाव से ही सही एक हार्दिक स्पन्दन सृजित करती है वसन्तऋतु । एक ऊर्जा, एक गति, एक लय, एक ताल, एक छन्द का अनुबन्ध करती है यह ऋतु, जिसकी अवहेलना किसी के वश की बात नहीं ।
जीवनपद्धति में परिवर्तन के साथ-साथ आवश्यकताओं में भी परिवर्तन होता है । आवश्यकताओं में परिवर्तन होंने से आसपास का वातावरण परिवर्तित होता है । आज हमारा समाज एवं देश ही नहीं अपितु पूरा विश्व एक बड़े परिवर्तन का साक्षी बन रहा है । जिसमें दिशायें बदल रही हैं, दशा भी बदल रही है और उसके साथ-साथ सौन्दर्य में भी परिवर्तन हो रहा है । आज के सौन्दर्य में सुख का आभास होता है । एक चटक चमक है जो प्राकृतिक सौन्दर्य की अपेक्षा बहुत महान् प्रतीत होती है । उसके पीछे भागने और उसे पाने में जीवन साकार प्रतीत होता है और सब उसी का पीछा करते हुये भागते रहते हैं ।  सर्वत्र एक उथल-पुथल है, एक आकांक्षा है  और कुछ नया पाने की इच्छा है । सभी को वर्णना-शक्ति प्रिय है परन्तु दर्शना-शक्ति के सृजन के लिये किसी के पास समय नहीं है । यदि कदाचित् किसी के पास समय है भी तो वह आलम्बन, उद्दीपन एवम् सहज सौन्दर्य दुर्लभ है जो कालिदास को अथवा पद्माकर को सुलभ था और आज जो कदाचित् घाव के किसी रग्घू को भी सुलभ है । आज सर्जना सिमटकर रह गयी है महानगरों की मेखलाओं तक उसकी स्वर्णजाड़ित परिधि तक और दर्शना शक्ति कहीं दूर किसी पहाड़ी गुहा में जाकर खो जाने को विवश है ।
यहाँ वास्तविकता यह है कि जो आज बहुत ही चमकदार, चटक और चकाचौंधीं प्रतीत हो रहा है वास्तव में वह जलबिन्दु नहीं सत्व नहीं अपितु मृगमरीचिका है, जिसमें जीवन भटक रहा है और जिसके अन्त में मात्र श्रान्ति ही हाथ लगनी है । इस मरीचिका का बोध भी उस बेला में होना है जब कुछ भी शेष रहने का

 अवकाश भी न रहे । इस दौड़ में सब भाग रहे हैं, किसी के पास विश्राम का समय तक नहीं हैं । एक पल रुककर कुछ सोचने तथा देखने का अवकाश नहीं है, बस बुनने की, बनाने की और सृजन की इच्छा है । सृजनेच्छा, दर्शनेच्छा के बिना पूरी ही नहीं हो सकती । इसलिये हर सृजन भग्न है, हर सृजन अधूरा है, हर सृजन अकेला है । सब कुछ अपेक्षित होकर भी उपेक्षित है । इसीलिये आज वसन्त भी अनायास ही उपेक्षित है । न वह सौन्दर्य है, न वे पलाश, वे किंशुक, वे आम्रमञ्जरियाँ, वे कोयले, वे भ्रमर और न ही उनमें रसानुभूति की प्रतिभा । सब नीरस में रस खोज रहे हैं । नीरस को सरस बनाने का उपाय ढूढ़ रहे हैं । इसी मृगमरीचिका में खोया है वसन्त !

Comments

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-02-2014) को "तुमसे प्यार है... " (चर्चा मंच-1518) पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आज का जीवन प्रकृति से इतना दूर हो गया है कि वसंत भी सुनी-सुनाई बात लगने लगा है ,थोड़े-बहुत जो नागरिक परिवेश में कुछ नए रंग भरते है उस ओर ध्यान देने का अवकाश कहाँ !हाँ और कामों की छुट्टी कर कुछ समय नैसर्गिक परिवेश में बिता सकें तो वह आनन्द मन में सुवास से भर देगा .
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